कानून क्या है और कैसे बनता है



आप कुछ कानूनों से परिचित होंगे। शायद आपको शादी की उम्र सीमा या मताधिकार की उम्र सीमा का पता होगा। संभव है आप संपत्ति को खरीदने-बेचने के कानूनों को भी जानते हों। अभी तक आप यह जान चुके हैं कि कानून बनाने का शिम्मा संसद का होता है। क्या ये कानून सभी पर लागू होते हैं? नए कानून किस तरह अस्तित्व में आते हैं? क्या कोई कानून अलोकप्रिय या विवादास्पद भी होता है? नागरिक के नाते हमें ऐसी परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? कानूनों की समझ 
क्या कानून सब पर लागू होते हैं?
एक सरकारी अधिकारी के बेटे को शिला अदालत ने 10 साल की सशा सुनाई है। इस वशह से वह सरकारी अधिकारी अपने बेटे को भाग निकलने में मदद करता है। क्या आपको लगता है कि उस सरकारी अधिकारी ने सही काम किया? क्या उसके बेटे को केवल इसलिए कानून से माफी मिल जानी चाहिए कि उसका बाप आर्थिक और राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर है? क्या कानून सब पर लागू होते हैं?


यह सीधे-सीधे कानून के उल्लंघन का मामला है। जैसा कि आप इकाई एक में पढ़ चुके हैं, राष्ट्रवादियों के बीच इस बात पर पूरी सहमति थी कि स्वतंत्रा भारत में सत्ता के मनमाने इस्तेमाल की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। इसीलिए उन्होंने संविधान में कई ऐसे प्रावधान जोड़े जो कानून पर आधारित शासन की स्थापना के लिए शरूरी थे। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण प्रावधान यह था कि स्वतंत्रा भारत में सभी लोग कानून की नशर में बराबर होंगे। हमारा कानून धर्म, जाति और लिंग के आधार पर लोगों के बीच कोई भेदभाव नहीं करता। कानून के शासन का मतलब है कि सभी कानून देश के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं। कानून से उफपर कोई व्यक्ति नहीं है। चाहे वह सरकारी अधिकारी हो या धन्नासेठ हो और यहाँ तक कि राष्ट्रपति ही क्यों न हो। किसी भी अपराध या कानून के उल्लंघन की एक निश्चित सशा होती है। सशा तक पहुँचने की भी एक तय प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति का अपराध साबित किया जाता है। लेकिन क्या हमेशा से ऐसा ही था? प्राचीन भारत में असंख्य स्थानीय कानून थे। अकसर एक जैसे मामले में कई तरह के स्थानीय कानून लागू होते थे। विभिन्न समुदाय इन कानूनों को अपने अधिकार क्षेत्रा में अपने हिसाब से लागू करने के लिए आशाद थे। कुछ मामलों में जाति के आधार पर एक ही अपराध के लिए अलग-अलग व्यक्ति को अलग-अलग सशा दी जाती थी। जैसे, निचली मानी जाने वाली जाति के अपराधी को श्यादा सशा दी जाती थी। औपनिवेशिक शासन के दौरान कानून पर आधरित व्यवस्था जैसे-जैसे परिपक्व होती गई, जाति के आधर पर सशा देने में भेदभाव का यह चलन खत्म होने लगा। बहुत सारे लोग मानते हैं कि हमारे देश में कानून के शासन की शुरुआत अंग्रेशों ने की थी। इतिहासकारों में इस बात पर काफी विवाद रहा है। इसके कई कारण हैं। एक कारण तो यह है कि औपनिवेशिक कानून मनमानेपन पर आधारित था। दूसरी वजह यह बताई जाती है कि ब्रिटिश भारत में कानूनी मामलों के विकास में भारतीय राष्ट्रवादियों ने एक अहम भूमिका निभाई थी। 1870 का राजद्रोह एक्ट अंग्रेशी शासन के मनमानेपन की मिसाल था। इस कानून में राजद्रोह की परिभाषा बहुत व्यापक थी। इसके मुताबिक अगर कोई भी व्यक्ति ब्रिटिश सरकार का विरोध या आलोचना करता था तो उसे मुकदमा चलाए बिना ही गिरफ्ऱ तार किया जा सकता था। भारतीय राष्ट्रवादी अंग्रेशों द्वारा सत्ता के इस मनमाने इस्तेमाल का विरोध और उसकी आलोचना करते थे। अपनी बातों को मनवाने के लिए उन्होंने संघर्ष शुरू कर दिया। यह समानता का संघर्ष था। उनके लिए कानून का मतलब ऐसे नियम नहीं थे जिनका पालन करना उनकी मजबूरी हो। वे कानून को उससे अलग ऐसी व्यवस्था के रूप में देखना चाहते थे जो न्याय के विचार पर आधारित हों। उन्नीसवीं सदी के आखिर तक भारत में कानूनी पेशा भी उभरने लगा था। कानूनी पेशे में लगे भारतीयों ने माँग की कि औपनिवेशिक अदालतों में उन्हें सम्मान की नशर से देखा जाए। ऐसे भारतीय कानून विशेषज्ञ अपने देश के लोगों के अधिकारों की हिपफाजत के लिए कानून का इस्तेमाल करने लगे। भारतीय न्यायाधीश भी प़्ौफसले लेने में पहले से श्यादा भूमिका निभाने लगे थे। इस प्रकार औपनिवेशिक शासन के दौरान कानून के शासन के विकासक्रम में यहाँ के लोग भी कई तरह से अपना योगदान दे रहे थे। संविधान को स्वीकृति मिलने के बाद यह दस्तावेश एक ऐसी आधारशिला बन गया जिसके आधार पर हमारे प्रतिनिधि देश के लिए कानून बनाने लगे। हर साल हमारे प्रतिनिधि कई नए कानून बनाते हैं और कई पुराने कानूनों में संशोधन करते हैं। कक्षा 6 की पुस्तक में आपने 2005 के हिंदू उत्तराधिकार संशोधन कानून के बारे में पढ़ा होगा। इस नए कानून के मुताबिक बेटे, बेटियाँ और उनकी माँ, तीनों को परिवार की संपत्ति में बराबर हिस्सा मिल सकता है। इसी प्रकार प्रदूषण को नियंत्रित करने और रोशगार मुहैया कराने के लिए भी नए कानून बनाए गए हैं। लोग इस निर्णय पर वैसे पहुँचते हैं कि एक नया कानून शरूरी है? वे कानून का प्रस्ताव किस तरह पेश करते हैं? इनके बारे में आप अगले हिस्से में पढ़ेंगे। नए कानून किस तरह बनते हैं? कानून बनाने में संसद की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह प्रक्रिया कई तरह से आगे बढ़ती है। आमतौर पर सबसे पहले समाज के विभिन्न समूह ही किसी खास कानून के लिए आवाश उठाते हैं। यह संसद की शिम्मेदारी है कि वह लोगों के सामने आ रही समस्याओं के प्रति संवेदनशील हो। आइए देखें कि घरेलू हिंसा का सवाल किस तरह संसद के सामने आया और घरेलू हिंसा की रोकथाम पर कानून बनने की प्रव्रिफया क्या थी।

जब परिवार का कोई पुरुष सदस्य (आमतौर पर पति) घर की किसी औरत (आमतौर पर पत्नी) के साथ मारपीट करता है, उसे चोट पहुँचाता है, या मारपीट अथवा चोट की धमकी देता है तो इसे घरेलू हिंसा कहा जाता है। औरत को यह नुकसान शारीरिक मारपीट या भावनात्मक शोषण के कारण पहुँच सकता है। यह शोषण मौखिक, यौन या फिर आर्थिक शोषण भी हो सकता है। घरेलू हिंसा कानून, 2005 में महिलाओं की सुरक्षा की परिभाषा ने घरेलूशब्द की समझ को और अधिक व्यापक बना दिया है। अब ऐसी महिलाएँ भी घरेलू दायरे का हिस्सा मानी जाएँगी जो हिंसा करने वाले पुरुष के साथ एक ही मकान में रहती हैंया रह चुकीहैं।
 

 इस उदाहरण से साफ हो जाता है कि नागरिकों की भूमिका कानून बनाने में कितनी अहम है। वे जनता की चिंताओं को कानून के दायरे में लाने के लिए संसद की मदद कर सकते हैं। इस प्रक्रिया के हर चरण में नागरिकों की आवाश बहुत मायने रखती है। यह आवाश टेलीविजन रिपोर्टों, अखबारों के संपादकीयों, रेडियो प्रसारणों और आम सभाओं के शरिए सुनी और व्यक्त की जा सकती है। इन सारे संचार माध्यमों के शरिए संसद का काम ठोस और पारदर्शी तरीके से जनता के सामने आता है। अलोकप्रिय और विवादास्पद कानून आइए अब एक और स्थिति पर विचार करें। कई बार संसद एक ऐसा कानून पारित कर देती है जो बेहद अलोकप्रिय साबित होता है। ऐसा कानून संवैधानिक रूप से वैध होने के कारण कानूनन सही हो सकता है। पिफर भी वह लोगों को रास नहीं आता क्योंकि उन्हें लगता है कि उसके पीछे नीयत सही नहीं थी। इसीलिए लोग उसकी आलोचना कर सकते हैं, उसके खिलाफ जनसभाएँ कर सकते हैं, अखबारों में लिख सकते हैं, टीवी चैनलों में रिपोर्ट
भेज सकते हैं। हमारे जैसे लोकतंत्रा में आम नागरिक संसद द्वारा बनाए जाने वाले दमनकारी कानूनों के बारे में अपनी असहमति व्यक्त कर सकते हैं। जब बहुत सारे लोग यह मानने लगते हैं कि गलत कानून पारित हो गया है तो संसद के उफपर भी उस कानून पर दोबारा विचार करने का दबाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, नगरपालिका की सीमाओं के भीतर जगह के इस्तेमाल से संबंधित विभिन्न नगरपालिका कानूनों में पटरी पर दुकान लगाने और पेफरी लगाने को गैरकानूनी घोषित किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सार्वजनिक स्थानों को साफ-सुथरा और खुला रखने के लिए कुछ कानून शरूरी हैं। तभी लोग आसानी से पफुटपाथों पर चल पाएँगे। लेकिन हम इस बात को भी नशरअंदाश नहीं कर सकते कि पटरी वाले एवं पेफरी वाले किसी भी बड़े शहर में रहने वाले लाखों लोगों को शरूरी चीशें और सेवाएँ बहुत सस्ती कीमत पर और कुशलतापूर्वक पहुँचाते हैं। इसी से उनकी रोशी-रोटी भी चलती है। लिहाशा अगर कानून किसी एक समूह की हिमायत करता है और दूसरे समूह की उपेक्षा करता है तो उस पर विवाद खड़ा होगा और टकराव की स्थिति पैदा हो जाएगी। जो लोग सोचते हैं कि संबंधित कानून सही नहीं है, वे इस मुद्दे पर फैसले के लिए अदालत की शरण में जा सकते हैं। यदि अदालत को ऐसा लगता है कि वह कानून संविधान के विरु( है तो वह उसमें संशोधन कर सकती है या उसे रद्द कर सकती है। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए
कि नागरिक के रूप में हमारी भूमिका प्रतिनिधियों के चुनाव के साथ खत्म नहीं होती। इसके बाद हम अखबारों और अन्य संचार माध्यमों के शरिए इस बात पर नशर रखते हैं कि हमारे सांसद क्या कर रहे हैं। अगर हमें लगता है कि वे सही काम नहीं कर रहे हैं तो हम उनकी आलोचना करते हैं। इस प्रकार हमें इस बात को सदा ध्यान में रखना चाहिए कि लोगों की जितनी हिस्सेदारी होगी और जितने उत्साह से वे जुड़ेंगे, उतना ही संसद को अपना काम सही ढंग से करने में मदद मिलेगी।

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